भारत में कोविड‑19 के दौरान सम्मिलित सर्विलांस: एक नारीवादी नज़रिया
by Radhika Radhakrishnan
एक कश्मीरी मुसलमान सलीम (बदला हुआ नाम) मार्च 2020 की सुबह अपने फ़िक्रमंद रिश्तेदारों की फोन कॉल से जागे, जो बता रहे थे कि उसका नाम और फोन नंबर एक सार्वजनिक सरकारी सूची में छपा है. इस सूची में क़रीब 650 लोगों का ब्योरा था, जो संदिग्ध रूप से उस समय दिल्ली में निज़ामुद्दीन मरकज़ के आसपास के इलाके में थे, जब इस्लामिक मिशनरी आंदोलन तब्लीगी जमात द्वारा वहां एक धार्मिक जलसा किया गया था. इस घटना के बारे में भारत सरकार की तरफ़ से दावा किया गया था कि इसकी वजह से देश में कोविड‑19 मामलों में तेज़ बढ़ोत्तरी हुई. धार्मिक जलसे के समय आसपास मौजूद लोगों का पता लगाने के लिए पुलिस ने मोबाइल फ़ोन डेटा का इस्तेमाल किया था. सलीम ने मुझे बताया कि वह उस दिन उस इलाक़े में नहीं थे, और उन्हें नहीं पता कि उसका नाम सूची में कैसे आ गया, और इसे सार्वजनिक क्यों किया गया.
सलीम ने बताया कि इस घटना के बाद से वह डरा हुए हैं. जब भी उसके दरवाज़े पर दस्तक होती है, यह सोचते हैं कि पुलिस उन्हें गिरफ़्तार करने आई है: “वे मुझ पर लगातार नज़र रख रहे हैं, मुझे लगा वे मुझे कहीं भी जाने से रोक सकते हैं. अगर उनके पास डेटाबेस है, तो वे मुझे कभी भी ढूंढ सकते हैं.” सलीम के लिए सरकार द्वारा उनके लोकेशन डेटा पर नज़र रखने का अनुभव ऐसा था मानो सरकार उसके शरीर की ट्रैकिंग कर रही थी. यह बात उनके दिमाग़ में इस तरह भर गई थी कि वो इस घटना के बाद से बाहर जाने पर हर बार अपना फ़ोन घर पर छोड़ने की सोचते हैं. आज की दुनिया में, हमारे शरीर हमारे डेटा से इस कदर जुड़े हैं कि सलीम को अपने डेटा के माध्यम से नियंत्रित किए जाने से बचने के लिए फोन के साथ अपने कनेक्शन को शारीरिक रूप से अलग करने की ज़रूरत थी.
“सलीम के लिए सरकार द्वारा उनके लोकेशन डेटा पर नज़र रखने का अनुभव ऐसा था मानो सरकार उसके शरीर की ट्रैकिंग कर रही थी. यह बात उनके दिमाग़ में इस तरह भर गई थी कि वो इस घटना के बाद से बाहर जाने पर हर बार अपना फ़ोन घर पर छोड़ने की सोचते हैं।”
सलीम का डर और सार्वजनिक रूप से निशाना बनाए जाने का अनुभव सिर्फ़ डेटा प्राइवेसी उल्लंघन का मामला नहीं हैं. यह निजी भावनाओं और उसके भौतिक रूप से प्रकट होने पर शारीरिक गतिशीलता पर बहुत ज़्यादा विनाशकारी असर की ओर इशारा करता है, जिसे हम मौजूदा डेटा सुरक्षा फ़्रेमवर्क के अंदर देख पाने में असमर्थ हैं. इस फ़्रेमवर्क में डेटा की सबसे आम समझ यह है कि यह एक संसाधन है जो हमारे शरीर से स्वतंत्र है और इंसानी शोषण के लिए उपलब्ध है;द न्यू ऑयल. (डेटा को बेशकीमती संसाधन बताते हुए गणितज्ञ क्लाइव हंबी ने कहा था, डेटा इज़ न्यू ऑयल) अंजा कोवाक्स बताती हैं कि इस तरह तैयार डेटा शरीर और डेटा के बीच के संबंध को ख़त्म कर देता है. चूंकि हमारे पास हमारे डेटा और हमारे शरीर की सुरक्षा के लिए अलग-अलग नीतियां हैं, इस कारण सर्विलांस का नुकसान कम दिखता है जो सलीम ने डेटा उल्लंघन में अनुभव किया था. लेकिन इन नुकसानों की वास्तविक सीमा को समझने के लिए, डेटा के निर्माण में शरीर को भी शामिल किया जाना चाहिए.
सलमा (बदला हुआ नाम) एक नर्स हैं और एक मुस्लिम महिला हैं जो झारखंड के एक मुस्लिम इलाके में रहती हैं, जहां लोगों की गतिविधियों पर नज़र रखने और कोविड‑19 लॉकडाउन का उल्लंघन करने वालों की पहचान करने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया जा रहा था. लॉकडाउन के दौरान एक शाम पड़ोस में एक गर्भवती महिला के प्रसव के लिए गंभीर अवस्था में मदद की कॉल आई. उनका इलाका सील किया हुआ था और किसी भी एंबुलेंस को प्रवेश नहीं दिया जा रहा था. गर्भवती महिला की मदद के अपने कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए वह ड्रोन द्वारा देखे जाने से बचने के लिए अंधेरे में छिपते हुए महिला के घर तक पहुंचना याद करती हैं. इस तरह की घटनाएं सामान्य घटनाएं थीं, वह कहती हैं: “लोगों को दवा नहीं मिल पा रही थी क्योंकि अगर वे घर छोड़ते तो ड्रोन आते और निगरानी करते थे, और लोग डर जाते, वापस घर के अंदर चले जाते.” ड्रोन की खींची डिजिटल इमेज पुलिस अधिकारियों की मौजूदगी के बिना भी भौतिक शरीरों को घर पर रहने के लिए अनुशासित करने का एक साधन हैं. ड्रोन द्वारा जुटाए गए डेटा की प्राइवेसी चिंता का विषय है, लेकिन इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि डेटा को दूर से शरीर को और उसकी गतिशीलता को नियंत्रित करने में इस्तेमाल किया जा रहा है. कम्युनिटी ट्रांसमिशन पर काबू पाने के लिए लोगों के आवागमन पर गाइडलाइंस ज़रूरी हो सकती हैं. हालांकि, जब इसे ऐसे तरीकों से अंजाम दिया जाता है जो लोगों के सामाजिक‑आर्थिक संदर्भों और जरूरतों को ध्यान में रखे बिना डरपैदा करता है, तो यह बीमारी को नियंत्रित करना नहीं है, बल्कि लोगों को धमकी देकर उनके डेटा एकत्र कर उनके शरीर को नियंत्रित करना है.
“लॉकडाउन के दौरान एक शाम पड़ोस में एक गर्भवती महिला के प्रसव के लिए गंभीर अवस्था में मदद की कॉल आई. उनका इलाका सील किया हुआ था और किसी भी एंबुलेंस को प्रवेश नहीं दिया जा रहा था. गर्भवती महिला की मदद के अपने कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए वह ड्रोन द्वारा देखे जाने से बचने के लिए अंधेरे में छिपते हुए महिला के घर तक पहुंचना याद करती हैं।”
साइबर हिंसा की शिकायत में असहजता
ड्रोन जनता की आंखों के सामने काम करते हैं, अनुशासनात्मक शक्ति का यह रूप कोविड‑19 होम‑क्वारंटाइन एप्लिकेशन के माध्यम से घर की अंतरंग जगहों तक फैला है. कर्नाटक सरकार ने क्वारंटाइन वॉच ऐप जारी किया, जिसमें सभी होम‑क्वारंटाइन लोगों को घर पर अपनी मौजूदगी साबित करने के लिए हर घंटे जियो-टैग की गई मोबाइल फोन सेल्फ़ी अपलोड करना होता है, और ऐसा नहीं करने पर उसके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की जाएगी. महिलाओं पर केंद्रित अध्ययनों से पता चलता है कि महिलाएं सरकारी जांच से जुड़े अविश्वास के कारण साइबर हिंसा की शिकायत दर्ज करने में असहज महसूस करती हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि केस की जांच के दौरान उनके मोबाइल की प्राइवेट तस्वीरें देखी जाएंगी. ऐसी ही असहज स्थिति सरकार के अधिकारियों को घर से सेल्फी भेजने में होने की संभावना है. इस डेटा का दुरुपयोग सिर्फ़ डेटा उल्लंघन नहीं होगा, बल्कि इनका आसानी से वॉयरिज़्म (किसी के निजी जीवन से आनंद लेना), फूहड़ हरकतों और शिकार बनाने में इस्तेमाल हो सकता है, जो किसी महिला की शारीरिक पवित्रता के लिए ख़तरनाक है.
भारत सरकार द्वारा कोविड‑19 के दौरान इंडस्ट्री के हितधारकों के साथ मिलकर कांटैक्ट ट्रेसिंग के लिए एक और ऐप आरोग्य सेतु विकसित किया गया है. इसके डेटा संग्रह का अनुपात, वैधानिकता और ज़रूरत की criticismआलोचना की जाती है. इन वैध चिंताओं से परे यह ऐप व्यक्ति के खुद के घोषित हेल्थ डेटा और उन मोबाइल उपकरणों के डेटा जिनमें उस इलाके में ऐप इंस्टॉल होता है, के आधार पर शरीर को ‘कम‑जोखिम’ या ‘ज़्यादा-जोखिम’ के रूप में वर्गीकृत करता है.
“महिलाओं पर केंद्रित अध्ययनों से पता चलता है कि महिलाएं सरकारी जांच से जुड़े अविश्वास के कारण साइबर हिंसा की शिकायत दर्ज करने में असहज महसूस करती हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि केस की जांच के दौरान उनके मोबाइल की प्राइवेट तस्वीरें देखी जाएंगी. ऐसी ही असहज स्थिति सरकार के अधिकारियों को घर से सेल्फी भेजने में होने की संभावना है।”
चूंकि रेलवे और मेट्रो का इस्तेमाल करने के लिए भी ऐप अनिवार्य है, इसलिए ये श्रेणियां निर्धारित करती हैं कि कोई व्यक्ति इन आवश्यक सेवाओं का इस्तेमाल कर सकता है या नहीं. इसके अलावा, ऐप के माध्यम से कर्मचारियों के स्वास्थ्य डेटा तक पहुंच रखने वाली कंपनियां उनका वेतन और बीमा तय करने के लिए इसका इस्तेमाल कर सकती हैं, जिससे उनकी आजीविका प्रभावित हो सकती है.
डिजिटल डिवाइड बड़ी ‘बाधा’
इसके अलावा, ऐप द्वारा जिन व्यक्तियों को इन श्रेणियों में शामिल किया गया है, संभव है कि विभिन्न कारणों से उनकी शारीरिक वास्तविकता अलग हो. सबसे पहली बात, किसी व्यक्ति के आसपास के इलाके में हर किसी के पास स्मार्टफोन या ऐप इंस्टॉल नहीं हो सकता है, ख़ासतौर से डिजिटल डिवाइड की रौशनी में देखें तो. दूसरा, चूंकि ऐप ख़ुद की घोषणा पर निर्भर करता है जो कि मेडिकल टेस्ट से पहले होता है, इसलिए कई मामलों में बीमारी की एसिम्टोमैटिक प्रकृति को देखते हुए घोषित लक्षणों को भरोसेमंद नहीं माना जा सकता है. तीसरा, लोग बीमारी से जुड़े कलंक के कारण अपने बारे में बताने में संकोच कर सकते हैं. चौथा, ऐप में गलत पॉजिटिव और नेगेटिव रिपोर्ट हो सकती हैं. फिर भी, एप्लिकेशन द्वारा निर्मित डिजिटल तथ्य हमारी शारीरिक वास्तविकताओं पर अधिमान्यता ले लेता है; कोविड‑19 के लिए नेगेटिव टेस्ट के बावजूद ऐप द्वारा उत्पन्न अलर्ट की वजह से लोगों को जबरन क्वारंटाइन कर दिया गया. एप्लिकेशन पर डेटा तय करता है कि क्या हमारा शरीर बीमार या स्वस्थ है, चाहे वह डेटा हमारे शरीर से मेल खाता हो या नहीं. डेटा न सिर्फ़ शरीर में निहित है, बल्कि यह आवश्यक सेवाओं का इस्तेमाल करने के लिए भौतिक शरीर पर अधिमान्यता ले लेता है.
“लखनऊ की शुभांगी बताती हैं कि कोविड‑19 लॉकडाउन के दौरान, जो महिलाएं घर पर मोबाइल फ़ोन का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल कर रही थीं ‘हिंसा का शिकार’ हुई. इसके अलावा, साझा पारिवारिक फोन का इस्तेमाल करने वाली महिलाएं लॉकडाउन के दौरान ऑफ़लाइन तरीकों के ख़त्म हो जाने के बाद घरेलू हिंसा की शिकायत करने में असमर्थ थीं।”
सुरक्षा उपाय के तौर पर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म वर्कर के लिए भी यह ऐप अनिवार्य बनाया गया. लेकिन भले ही ऐप काफ़ी सटीक था, यहां किसकी सुरक्षा की चिंता की जा रही थी? इंडियन फेडरेशन ऑफ ऐप‑बेस्ड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स (IFAT) के राष्ट्रीय महासचिव शेख सलाउद्दीन सवाल करते हैं कि ऐप केवल ऊबर के ड्राइवरों के लिए अनिवार्य था, न कि यात्रियों के लिए: “अगर मैं एक ड्राइवर हूं, और कोई मेरी कैब में आता है तो ड्राइवर को कैसे पता चलेगा कि व्यक्ति पॉजिटिव है या नेगेटिव? अगर कंपनी या सरकार को ड्राइवर की सुरक्षा की फ़िक्र है, तो आप लोगों को दस्ताने और मास्क क्यों नहीं देते?,” हालांकि, डेटा महत्वपूर्ण समझ प्रदान करने में मददगार हो सकता है, लेकिन आख़िरकार यह ख़ुद आपको सुरक्षित नहीं रख सकता है, खासकर जब यह उन लोगों के नियंत्रण में नहीं है, जिनका शरीर इसे उत्पन्न करता है.
इसके विपरीत, हालांकि, इसे एक सुरक्षा उपाय के रूप में सही ठहराया जाता है, डेटा के माध्यम से की जा रही सर्विलांस हिंसा को जन्म दे सकती है. महिलावादी कानूनी मदद संसाधन समूह और घरेलू हिंसा से पीड़ित लोगों के लिए काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर एडवोकेसी एंड लीगल इनिशिएटिव्स (AALI), लखनऊ की शुभांगी बताती हैं कि कोविड‑19 लॉकडाउन के दौरान, जो महिलाएं घर पर मोबाइल फ़ोन का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल कर रही थीं ‘हिंसा का शिकार’ हुई. इसके अलावा, साझा पारिवारिक फोन का इस्तेमाल करने वाली महिलाएं लॉकडाउन के दौरान ऑफ़लाइन तरीकों के ख़त्म हो जाने के बाद घरेलू हिंसा की शिकायत करने में असमर्थ थीं. जेंडर और सेक्सुअलटी के मुद्दे पर काम करने वाले संगठन, पॉइंट ऑफ़ व्यू की कार्यकारी निदेशक बिशाखा दत्ता कहती हैं: “लोग उस नंबर का पता लगने से डरते हैं, जिससे वे कॉल कर रहे हैं.” अक्सर सांस्कृतिक रूप से महिलाओं की मोबाइल फोन और इंटरनेट तक पहुंच पर पाबंदियां रखी जाती हैं क्योंकि डेटा की स्वतंत्रता की क्षमता पितृसत्तात्मक सीमाओं के लिए खतरा है. महिलाओं की डेटा तक पहुंच को नियंत्रित करना, उनके शरीर को नियंत्रित करने का एक तरीक़ा है, उन्हें हिंसा की शिकायत करने और फ़ोन का उपयोग करने से रोकना है. नारीवादियों ने इसे लेकर बहुत कुछ लिखा है कि घर महिलाओं के लिए असुरक्षित और ग़ैर बराबरी की जगह है. सर्विलांस यह सुनिश्चित करता है कि घर के भीतर इन असमानताओं को संरचनात्मक तरीके से वैध बनाया जाए और दोबारा से लागू किया जाए.
हिंसा में बढ़ोत्तरी
कभी-कभी जिन लोगों पर सर्विलांस किया जा रहा है, वो लोग नहीं बल्कि निगरानी करने वाले लोग इसके माध्यम से हिंसा का शिकार हो सकते हैं, अगर वे उस शक्ति-संतुलन में कम शक्ति रखते हैं. आशा (एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट- ASHA) का मामला देखें, जो बड़े पैमाने पर हाशिए की आबादी व जातियों से आने वाली महिलाएं हैं, और महामारी के दौरान सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा की फ्रंट‑लाइन पर तैनात हैं. पंजाब सरकार ने घर-घर जाकर कोविड‑19 सर्विलांस का काम करने के वास्ते आशा वर्कर के लिए घर-घर निगरानी ऐप लॉन्च किया. ऑल इंडिया आशा वर्कर एंड फ़ेसिलिटेटर्स यूनियन की पंजाब में यूनियन लीडर रंजीत कौर ने बताया: “अगर किसी को गांव में खांसी है, और आशा वर्कर ऐप में यह बात दर्ज करती है, अगर उन्हें पूछताछ के लिए बुलाया जाता है, तो वे उनकी इस हालत के लिए आशा वर्कर को ही दोषी ठहरा देते हैं. आशा वर्कर को इसके कारण हिंसा का सामना करना पड़ रहा है.”. डोर‑टू-डोर सर्विलांस कार्यों के दौरान आशा वर्कर के ख़िलाफ हिंसा की कई घटनाएं दर्ज की गई हैं. इस डर से कि ऐप से जुटाए डेटा के कारण लोग कै़द या क्वारंटाइन किए जा सकते हैं, वे अपने डेटा शरीर को बचाने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं. रक्षा के सवाल को एक बार फिर से इसके सामाजिक संदर्भों में रखकर देखा जाना चाहिए— सरकार किसकी सुरक्षा के काम कर रही है? सरकार ने कोविड‑19 के दौरान महीनों से दस लाख से ज़्यादा आशा वर्कर को भुगतान नहीं किया, न ही उन्हें सिक्योरिटी गियर प्रदान किए गए हैं. जब सौ से अधिक आशा वर्कर ने लॉकडाउन के दौरान इन हालात का विरोध किया तो दिल्ली पुलिस ने उनके ख़िलाफ केस दर्ज कर दिया.
“डोर‑टू-डोर सर्विलांस कार्यों के दौरान आशा वर्कर के ख़िलाफ हिंसा की कई घटनाएं दर्ज की गई हैं. इस डर से कि ऐप से जुटाए डेटा के कारण लोग कै़द या क्वारंटाइन किए जा सकते हैं, वे अपने डेटा शरीर को बचाने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं।”
शरीर और डेटा के बीच संबंध को उजागर करने से इसके शक्ति संबंधों और संदर्भों पर रौशनी पड़ती है, इसलिए इसके उल्लंघन से उत्पन्न होने वाले विशिष्ट नुकसानों को स्पष्ट किया जाना चाहिए. यहां चर्चा किए गए सभी मामलों में सर्विलांस न केवल डेटा प्राइवेसी, बल्कि शारीरिक पवित्रता, स्वायत्तता और व्यक्ति की गरिमा को कम करता है. हालांकि, ये उल्लंघन नए नहीं हैं, लेकिन अब ये विशाल पैमाने पर अपारदर्शी डिजिटल माध्यम से हो रहे हैं जो पहले संभव नहीं था. डेटा सुरक्षा नीतियों को एक संसाधन के रूप में डेटा को संसाधन बनाए जाने से आगे बढ़ना चाहिए, और एक निहित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए ताकि व्यक्तियों का न केवल उनके डेटा पर, बल्कि उनके शरीर पर भी अधिकार हो. इस तरह का दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करेगा कि डिजिटल युग में हमारे मानवाधिकारों को कानूनी दायरे में सुरक्षित हों.
लेखिका का नोट: यह लेख इंटरनेट डेमोक्रेसी प्रोजेक्ट के तहत डेटा गवर्नेंस नेटवर्क की मदद से आगामी शोध के लिए किए गए गुणात्मक अनुसंधान पर आधारित है. राधिका राधाकृष्णन, (2020).